पुष्प
की कली,
खिलखिलाती आंगन की
तुलसी मज़हर नियमों,
से बंदी,
खूबसूरत आभूषण से
अधिक कोमल,
गृह की
मुख्य पात्र इक नारी।
रिश्तो में उत्सुक रूची लिए,
समाज को प्रेरणा देती,
मानों जन्नत की देवी,
मानव का छोटा सा
अनुरूप लिए हो।
तूफानों के रोज अब्र टूटते,
फिर भी
कष्ट को पीठ पर
गिरा देती।
ग़ज़ब की झलक में मोहित
करती इक नारी।
दृष्टि डाली पूरा आंचल,
आगो़श में समेटे हुए।
निडर प्यार के
नाम के उपाधि मां लिए।
जगमग की चमक
दूर-दूर तक फैलाए,
रखती इक नारी।
भूख के लिए,
कहीं दरवाजे खट-खटाती,
तो कहीं फावड़े चलाती।
फायदा उठा मानव,
ने कहां समझी?
बस व्यापारी समझकर,
मां की ममता रूठी,
और तमाशा बनी
बैठी इक नारी।
मयंक कर्दममेरठ (उ०प्र०)