मायूस क्या होना उनके होने बेगाने से ,
हैं रिश्ते आज भी गहरे मेरे मयखाने से ।
रोग मुनासिब है तो दवा भी है जहाँ में ,
उठा लाऊँगा दवा जाकर दवाखाने से ।
शुक्रगुजार हूँ कि बस आसमां सलामत रहे ,
क्या फर्क पड़ते हैं दो -चार तारे टूट जाने से ।
जिंदगी में ठोकर से यहाँ कौन भला डरता है ,
ठोकर का वास्ता है इक दिन सुधार में आने से ।
इतनी भी टूटा हूँ तेरी बेरूखी से कि
खूब रो पडूँगा मैं तेरे मुस्कराने से ।
और तू गैर की दुल्हन बनके तो दिखा ,
मैं भी बाज नहीं आऊँगा जश्न मनाने से ।
निरंजन कुमार पांडेय
अरमा लखीसराय -बिहार