चारो और खौफ़नाक मंज़र है - कविता - चीनू गिरि


चारो और खौफ़नाक मंज़र है , 
एक अदृश्य वायरस का डर है।
सडकें सुनी, गलियां सुनी, बाजार सुने,
मेले नही, ठेले नही, रेले नही, रिक्शे नही,
जिधर देखो सन्नाटा पसरा हुआ है ।
फैला हुआ कोरोना का कहर है,
चारो और खौफ़नाक मंज़र है  ।

परिंदे आज़ाद घूम रहे है,
और इंसान घर मे कैद हो गए।
जैसे जिंदगी थम सी गई है ,
स्कूल, दुकान,फैक्ट्री मे ताले लगे।
दुनियाँ भर के बन्द कारोबर है,
चारो और खौफ़नाक मंज़र है।

ये कैसी महामारी आई,
खतरे मे सब की जान आई ।
हर रोज मौत के आकडे़ बढ़ रहे है ,
मौत के डर से एक दूजे से दूर है ।
अब मौत का डर आठो पहर है,
चारो और खौफ़नाक मंज़र है।

चीनू गिरि
देहरादून (उत्तराखंड)

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