पला-बढ़ा,खेला- कूदा,
पढा़, संस्कारित हुआ ,
रोजी के नाम पर पर शहर की ओर कूंच कर गया।
कमानी थी उसे रोटी,
ढूंढ़नी पड़ेगी रोजी,
कई दिन दर-दर भटका,
एक दिन मंजिल मिल गई, और काम मिल गया।
रोजी के नाम पर पर शहर की ओर कूंच कर गया।
बहुत खुश हुआ वह,
दो जून की जुगाड़ हो गई, छोटी सी चाल मिल गई,
कोई दिन में काम पर जाता, कोई रात को निकल गया।
रोजी के नाम पर शहर की ओर कूंच कर गया।
धीरे-धीरे एक वर्ष जीता, होली का पर्व आया,
गांव का रुख किया,
मजे से नए कपड़े पहन रंग
जमाने निकल गया।
रोजी के नाम पर शहर की ओर कूच कर गया।
और कुछ वर्ष बीते ,
त्यौहार में, गांव रह गए रीते,
दिनोंदिन भूलता चला गया, रोटी,रोजी,विवाह बच्चों की परवरिश में खो गया।
रोजी के नाम पर शहर की ओर कूच कर गया।
गांव की वेदना थी बड़ी,
जो भी यहां से जाता है, लौटता नहीं पर गांव को अपना बच्चा याद आता है, यही व्यथा लिए गांव पुरानी यादों में खो गया।
रोजी के नाम पर शहर की ओर कूच कर गया।
आज बहुत खुश है गांव,
लौट रहे उसके बेटे सपरिवार, उसका आनंद है अपरंपार, उसके बच्चे भी, मेरी गोद में, खेलेंगे सोच कर वो सो गया।
रोजी के नाम पर शहर की ओर कूच कर गया।
लौट कर आए हैं वो,
मैं दूंगा रोटी-रोजी ,
चैन से खाएं -कमाएं,
गांव की खुशी का ठिकाना
ना रहा, मुस्कुरा कर रह गया।
रोजी के नाम पर शहर की ओर कूंच कर गया।
फिर से दिवाली, होली, रक्षाबंधन, भैया-दूज ,
सभी त्यौहार मनाएगा,
फूला नहीं समाएगा,
ठिठोली-हंसी में, घुल मिल गया।
रोजी के नाम पर शहर की ओर कूंच कर गया।
सारी वेदना भुला दी,
बच्चे उसकी मिट्टी में खेलेंगे, मिट्टी से दीपक, टेसू बनाएंगे, घरोंदे बनाएंगे ,धूल लपेट-
लपेट कर बच्चा गांव में हिल मिल मिल गया।
रोजी के नाम पर शहर की ओर कूंच कर गया।
नई पीढ़ी पीली सरसों देखेगी, बाद बरसों भुट्टे, होले भूनेंगे,
चना-मटर भून के खाएंगे,
शहर से स्वादिष्ट, गांव के, फल- सब्जी खाएंगे, भाग्यशाली गांव फिर से खिल गया, मुस्कुरा गया।
रोजी के नाम पर शहर की ओर कूंच कर गया।
भाग को सराहेगा,
मेरे बच्चे,बच्चों के साथ, वापस लौट आए हैं,
गांव की जिंदगी में ,
बहार आ गई ,
गांव ही क्या हर कोई आंसुओं से भर गया।
रोजी के नाम पर शहर की ओर कूंच कर गया।
दिनेश कुमार मिश्र "विकल"