रचना नवनीत बनाता हूँ।
दूजे के इस जीवन नित नव ,
प्रीति रीति गीत नित गाता हूँ।
बाधाओं का नहीं क्षितिज जग ,
सागर मथ कर सुलझाता हूँ ।
नवजीवन निर्माण पथिक नित,
जग स्वयं क्षितिज बन जाता हूँ।
क्षितिज व्योम के अन्तस्तल में ,
नित भाव क्षितिज बन जाता हूँ।
नित ब्रजेश राधा निकुंज मय,
चन्द्रहास मंद मुस्काता हूँ।
क्या भुवि व्योम ब्रह्माण्ड सकल ,
रवि किरणों से बच पाया है।
प्रभा लोक जीवन निर्माणक ,
रविपुंज क्षितिज बन पाया है।
रवि रश्मि धरा , अनुभूति अतुल,
बन कीर्ति लता कवि छाया है।
पा अरुणिम जीवन उड़ान भर,
अन्तर्भाव क्षितिज रच पाया है।
किसन लाल सरदार गोप का,
खुशियाँ नवनीत खिलाया हूँ।
क्या चाहत अरमान बचे अब,
माधव प्रीति भक्ति रस पाया हूँ।
अभिलाष हृदय चितचोर किसन,
मधु माधव निकुंज बन पाया हूँ।
क्षितिज बने जीवन मन राधे,
वंशीधर रास बसाया हूँ।
रजनी के रजनीश मिलन में,
बनी चाँदनी बाधक आयी।
अरमानों के आशमहल में,
बनी क्षितिज अहसास करायी।
पड़ा मूसीबत आज चन्द्र भी,
रात्रि चन्द्रिका को समझाए।
रवि वसुधा सम बनी क्षितिज दो ,
मधुर मिलन आभास कराए।
डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" - नई दिल्ली