सूना पड़ा घर द्वार।
मजबूरी में हम सब मजदूरी करते हैं
घर बार छोड़ करके शहरों में भटकते हैं।
रात हो या दिन मजबूरी में कटते हैं
दर्द के आंसू भी आ छलकते है
नहीं है खाना-पीना, हमें अपने घरों को जाना
अब नहीं सुने है कोई, सबको घर हैं पहुंचाना।
हम मजदूरों को गांव हमारे भेज दो सरकार...
सूना पड़ा घर द्वार...।
नहीं है कोई सहारा,अब घर पैदल ही जाना।
चाहे तपती हो सड़क,हो रस्ते में कंकड़।
अब हमारा एक ही रास्ता है,हम सभी को गांव जाना हैं।
पैदल चलते-चलते...
हो गए हैं पैरों के छाले।
मैं सुनाता हूं उन मजदूरों की करुण व्यथा।
अब तो सुन लें हे! सरकार
हमें पहुंचा दो घर द्वार...।
ढलाराम गोयल "घड़ोई"बाड़मेर (राजस्थान)