आज भी वो पत्र रखा हूँ,
जिनमें वादें औ' कसमें हैं|
बस मेरी उसकी दास्तानें,
कितने नामुकम्मल नगमें हैं|
मंजिल के करीब होकर भी,
हमसफ़र का साथ छूट गया|
सफर तो भी जारी है दोस्त,
बस अश्कों का बाँध टूट गया|
कभी कभी लगता है, अब
मंजिल पाकर क्या होगा?
पर वापसी है सोंच से परे,
मेरी आहे ही बयां होगा|
इस कशमकश में भी यार,
चित्त से उठती है आवाज|
जिंदगी का यही मर्म है रे,
यहां नहीं मिल पाता साज|
इश्क की यह अधूरी कहानी,
कहती है तू पीता रह गरल|
मुड़के यूँ अतीत को न देख,
वक्त के कारवाँ संग तू चल।
जितेन्द्र कुमार