तुम्हे मिलता है क्या बोलो हमें यूँ वरगलाने में।
हमारी मौत भी उनके लिए है ताश का इक्का,
वो माहिर हैं यहाँ पूरे, हमारा दर्द भुनाने में।
बयाँ करते रहे मेरा सफ़र ये पाँव के छाले,
कटी है उम्र ये मेरी, नए रस्ते बनाने में।
मिरी ग़ुरबत कि मुझको काम कोई मिल नहीं पाया,
न दफ़्तर में, न मिल में और, न ही कारखाने में।
मेरे जलते हुए घर से कोई बचकर न अब निकले,
वगरना भूख से मरना पड़ेगा इस ज़माने में।
हुई मुद्दत कि आँखों से कोई आँसू नहीं टपका,
छलक आये हैं इनमे अश्क यूँ ढांढस बंधाने में।
मैं शायर हूँ मेरा तो काम है ग़ज़लें सुनाने का,
मगर "दिल" को भी तो अब चैन आये कुछ सुनाने में।
दिलशेर "दिल" - दतिया (मध्यप्रदेश)