अपनी मंजिल पाने को,
भले राह में कष्ट हजारों
पीने को, ना खाने को।
श्रमबिन्दु है, साथी अपना
क्यों करें गुहार सरकार से,
काट के पत्थर नगर बनाए
अपनी मेहनत की धार से।
लाख करोड़ों तुम रख लेना
हम मेहनत से खाते हैं
धूप ताप और प्यास भूख में
हम आगे बढ़ते जाते हैं।
धारायें मोड़ी हैं हमने
श्रम से और पसीने से
कौन रोक सकता है हमको
अपनी दम पर जीने से।
पैरों के छाले कहते हैं
मंजिल आने वाली है
आसमान है चादर अपनी
गम में भी खुशहाली है।
धरती से नाता जीवन का
धरती माँ गले लगाती है,
मत रोको बढ़ते ,पैरों को
अपनी मिट्टी हमें बुलाती है।
ईश्वर ही साथी है अपना
क्या दुनियां साथ निभाएगी,
हम मेहनतकश की विपदा का
क्या दुनियाँ मोल चुकाएगी।
सौरभ तिवारी - शिवपुरी (मध्यप्रदेश)