वो जिन्हें बरसों से हम समझा रहे हैं।।
इश्क़ की राहें बहुत उलझी हुई हैं।
रफ़्ता-रफ़्ता हम उन्हें सुलझा रहे हैं।।
तश्नगी करवट पे करवट ले रही है।
थपकियाँ देकर उसे बहला रहे हैं।।
आ रहे हैं उस तरफ़ से सिर्फ़ पत्थर।
आइना जिसको भी हम दिखला रहे हैं।।
लाश कुछ टूटे हुए ख़्वाबों की देखो।
अपने काँधों पर लिये हम जा रहे हैं।।
कोई आकर इनपे पानी डाल दे कुछ।
ख़्वाब जो आंखों में हैं मुरझा रहे हैं।।
मात दे पाया नहीं हमको कभी वो।
वक़्त को भी यूँ पसीने आ रहे हैं।।
आजतक इक देवता मन में बसा जो।
देखकर उसको बहुत शर्मा रहे हैं।।
लौट आया साथ लेकर हमसफ़र वो।
'यास्मीं' जिसके लिए तन्हा रहे हैं।।
डॉ. यासमीन मूमल "यास्मीं" - मेरठ (उत्तर प्रदेश)