कये बिन चैन परत नईंयाँ
खा खा सांड़ परे हैं लरका
उनकौ मांस दबत नईंयाँ
रात रात भर देत दोंदरा
जल्दी कभऊँ जगत नईंयाँ
ठलुवाई में बखत काट रये
कौनऊँ काम करत नईंयाँ
खावे बन्न बन्न कौ चानेँ
रोटी, दार ठुसत नईंयाँ
कर कर कें हम मरे मजूरी
तौ तक पूर परत नईंयाँ
सपनौ हो गयी कढ़ी, महेरी
मांगें मठा मिलत नईंयाँ
परी रेत है रोज मुसीबत
टारें सुगम टरत नईंयाँ
महेश कटारे "सुगम" - बीना (मध्यप्रदेश)