होता नहीं यकीन अब, देख सहज व्यभिचार।।
अन्तर्मन से प्रेमिका, त्याग समर्पण भाव।
मन मंदिर में एक ही, प्रेम सुधा की चाव।।
संकट है अवसर मिला, खूब करो संघर्ष।
धैर्य ज्ञान विवेक लिए, तपते रहो सहर्ष।।
धरती के शृंगार हैं, सरिता सागर शैल।
वन हैं इसके फेफड़े, फेंक न इसमे मैल।।
लूट सके तो लूट ले, मिली जुली है खेल।
जनता है सोई यहाँ, मंत्री- संत्री मेल।।
दहेज की लपटें लगी, घर-घर हाहाकार।
ऐसे में कैसे करूँ, प्रेम सुधा सत्कार।।
संजय राजभर "समित" - वाराणसी (उत्तर प्रदेश)