मौत भी आज से तो सरल हो गई।।
मोहिनी, कमल नयनी बँधी डोर सी।
सर्पिणी सी लिपट मय गरल हो गई।।
इश्क़ थी, दूर की बात, मेरे सनम।
जिंदगी बे-शऊर अब हल हो गई।।
भर गई थी लबालब तलहटी अना।
आज निश्छल दिलों सी सजल हो गई।।
गुनगुनाता रहा बहुत देर तक जब।
भाव ओठ पर आके गजल हो गई।।
बंजर विरान थी समित' की जिंदगी।
प्रेम प्याला पिला वो फज़ल हो गई।।
संजय राजभर "समित" - वाराणसी (उत्तर प्रदेश)