बिगड़े क्यों हालात न जाने।
ठीक- ठाक लगता था सब कुछ
बदले क्यों जज़्बात न जाने
आज जीत के दरवाज़े पर
घूम रही क्यों मात न जाने
बादल छाये भी, गरजे भी
रूठी क्यों बरसात न जाने
मन्नत और मुरादों के हैं
क्यों ढुल-मुल अनुपात न जाने
मंजिल की देहरी पर जाकर
बिछुड़ी क्यों बारात न जाने
साथ नींद का छोड़ दिया है
पगलाई क्यों रात न जाने।।।।
ममता शर्मा "अंचल" - अलवर (राजस्थान)