सुहाना समा दिल जलाता रहा है ।
सुलगती शमा सा फ़क़त दिल ये मेरा ।
पिघलता पिघलता जलाता रहा है ।
ये घायल सी साँसे ये बेचैन आँखें ।
हर इक रोज मुझको चुकाता रहा है ।
ये रूहों की चादर में जख्मो के मोती ।
जनाज़ा हमारा सजाता रहा है ।
राहे मोह्हबत को माना इबादत ।
ये रस्मे वफ़ा दिल निभाता रहा है ।
कभी तो मिलेगा वो हमरूह मेरा ।
यही दिल दिलासा दिलाता रहा है ।
फ़ना होके भी तेरा आवाज़ देना ।
अश्कों मे, सुष, को डुबाता रहा है ।
सुषमा दीक्षित शुक्ला - राजाजीपुरम, लखनऊ (उ०प्र०)