और सदाएं बेटियों की क़बूल हो गई!
सौ बार कोख़ में मरकर भी नहीं मरी,
ये बेटियाँ कल्पवृक्ष का फूल हो गई!
मां-बाप होकर उजाड़ दी गोद अपनी,
अब रो कर कहते हैं, कि भूल हो गई!
किसी ने दहेज़ की आग में जलाया,
तो किसी के लिए बेटियाँ शूल हो गई!
बिना बेटियों के बहू कहां से पाओगे?
जो कहते हो, बेटियाँ फ़िज़ूल हो गई!
कपिलदेव आर्य - मण्डावा कस्बा, झुंझणूं (राजस्थान)