जिंदगी में कहां सुभीते हैं ।
वह गया फिर ना फिरा
और न ली सुधि घर की
असुअन की धार थमी
नयन घट रीते हैं ,
जिंदगी में कहां सुभीते हैं।
बेटियां सयानी हुईं
फसलों से आस नहीं
फर्जों और कर्जों की
बाढ़ से फजीते हैं,
रोज मरते हैं रोज जीते हैं।
माया और ब्रह्म बीच
सुलझा सा उलझा रहा
खुद से अनजान हूँ
पल यूं ही बस बीते हैं ,
रोज मरते हैं रोज जीते हैं।
संतोष जीवन का सुफल
प्रभु को समर्पण सार्थक
धन्य हैं परमार्थी रस
प्रेम सहज पीते हैं ।
रोज मरते हैं रोज जीते हैं
जिंदगी में कहां से सुभीते हैं।
डॉ. राजेन्द्र गुप्ता - करैरा, शिवपुरी (मध्यप्रदेश)