तुझे थोड़ा वक़्त मिल जाए
खिल उठे मेरा अंत:मन
मानो जैसे गुनहगार को
थोड़ा सा रहम मिल जाए
दिन दोपहर की मेरी सिसकियां
ना रोएं दिल मेरा
ना बेरंग हो महफ़िल मेरा
बेवजह बहते अश्क को
यूं ही एक कसम मिल जाए
अगर तुझे थोड़ा वक़्त मिल जाए
तेरे फोन के इंतजार में
पहले दोस्ती फिर तुझसे प्यार में
अकेले चल पड़ा हूँ
काँटे भरे राहों में
तुझे पाकर
तुझमें समा कर
काश! सनम तुझ सा कोई मंजिल मिल जाए
अगर तुझे थोड़ा वक़्त मिल जाए
फिर ना जले कभी भी
दिन दोपहर सिगरेट की चिंगारियां
तू मुझे मिले
या मैं हो जाऊं तेरे हवाले
फिर प्रातः दो फूल खिले
महक उठे दो क्यारियां
फूलों के इस बाग में
मुझे भी एक महक मिल जाए
अगर तुझे थोड़ा वक़्त मिल जाए
ख्यालों में अकेले तन्हा सोच रहा हूँ
तुम्हें थोड़ा सा वक़्त मिल ही जाए
मैं तुम्हें मिल जॉन
तू मुझे मिल जाए
अगर तुझे थोड़ा वक़्त मिल जाए
दीपक कुमार पंकज - मुजफ्फरपुर (बिहार)