बदल जाते हैं साये, जब पैसा पास नहीं होता!
ख़ाली हो ज़ेब तो हमसाया भी छोड़ जाता है,
यहां ढलते सूरज से चिराग़ तक नहीं डरता!
चले जाते हैं लोग, महफ़िल का मज़ा लूटकर,
हारे हुए शहंशाहों का भी इतिहास नहीं होता!
ज़िंदा वो नहीं, जिसने ख़्वाबों को मार दिया,
ज़िंदा वो है, मरके जीने की आस नहीं खोता!
अगर उड़ने की तलब है तो गिरना सीख लो,
हौंसले बुलन्द हो तो कोई हर बार नहीं गिरता!
इतना तो जुटा लो कि उनसे आंखें मिला सको,
जो कहते रहे, कि तुम पर विश्वास नहीं होता!
टूटकर क़दमों में आ गिरेंगे, नफ़रत करनेवाले,
यहां उगते सूरज को कोई नाराज़ नहीं करता!
कपिलदेव आर्य - मण्डावा कस्बा, झुंझणूं (राजस्थान)