और ज़िन्दगी गुनगुना रही है!
खिले उठे हैं हज़ारों फूल यारा,
उठो, तुम्हें ख़ुशियाँ बुला रही है!
तोड़कर ज़ंजीरें दर्दों- ग़म की,
ज़रा इक बार तो मुस्कुरा दो ?
यारा, शोक में रहोगे कब तक?
देखो, तो ज़िंदगी बुला रही है!
कर दो शिकवों से दिल ख़ाली,
उड़ेल दो इसमें प्रीत की प्याली!
बदलो नज़रें कि नज़ारा बदले,
देखो, होंठो पर हँसी आ रही है!
कपिलदेव आर्य - मण्डावा कस्बा, झुंझणूं (राजस्थान)