जीवन और मृत्यु की प्रतिदिन, क्षण-क्षण घटती जाती दूरी।
जीवन भर सुख वैभव के सामान जुटाये हमने अनगिन-
लेकिन फिर भी आज तलक भी तृष्णा नहीं हुई है पूरी।
कितना कुछ पाया जीवन में, लेकिन हृदय अतृप्त रहा।
तृष्णा को पूरा करने में, क्या-क्या हमने नहीं सहा।
यह कैसी अनबूझ पहेली, मुझसे सुलझी नहीं कभी-
सदा बुझाने से जो बढ़ती, सबने तृष्णा उसे कहा।
श्याम सुन्दर श्रीवास्तव "कोमल" - लहार, भिण्ड (मध्यप्रदेश)