मिलने की बस आँखो की ललक थी।
हज़ारों मिलन की एक झलक थी।
रहते जैसे साथ साथ चाँद सितारे थे;
वैसे एक दूजे के सहारे थे।
वे लम्हें कितने.....
ख़ूबसूरत सा हर पल लगता था।
आँखों में प्रेमदीप जलता था।
ज़माने की उलझी नीतियों से;
हम विरक्त संसृति के किनारे थे।
वे लम्हें कितने.....
न था जगत से कोई वास्ता।
थी एक मंज़िल, था एक रास्ता।
हम निज भाग्य पर इठलाते;
पर! दुनिया के नज़र में गवांरे थे।
वे लम्हें कितने.....
नहीं था किसी से बैर भाव।
जीवन में किसी का अभाव।
हर दिन बस यही लगता;
देखते हम टूटते तारे थे।
वे लम्हें कितने.....
प्रवीन "पथिक" - बलिया (उत्तर प्रदेश)