अन्तर्द्वन्द्व बहुतेरे अन्तस्थल छिपे,
अवसीदना दर्द ए हाल जमाने के,
कचोटती कुरेदती चोटिल चिथेड़े,
मरुस्थल बनी आखें वजूद को
ख़ोजते खोदर छिप अपनी आपबीती,
मर्माहत ज़मीर ओ ख़ुद्दारियत अपने,
आईना बन अपारदर्शक दिलों में,
रहस्य बन छिपे जिंदगी के अफ़साने,
ज़िल्लतें, दर्द ओ जख्म ए ढाए सितम।
लुटी खूबसूरत जवानी जिंदगी के,
सारे अरमान, मुस्कान और खुशियाँ,
हताहत मंजिंले नित छल कपट धोखे,
शर्मसार हुई इन्सानियत ईमान सच,
अपनों की दगा महाज्वाल में जले
तबतक जबतक दग्ध राख़ न बने हम,
उपहास की नंगा नाँच देखी हमने,
अस्मिता क्षतविक्षत रक्तरंजित पल,
अनुराग राग उपराग बन दफ़न सीने में,
सुषुप्त ज्वालामुखी बन उद्यत प्रस्फुटन,
तन मन धन निज जीवन परहित अर्पण,
सब आबाद हुए मेरे सजाए आशियां,
किलकारियाँ गूँजी बन इमारत तले ,
लड़ियाँ खुशियों की लगी मुस्कान बन,
भूले सब ऐशो आराम के सुखद छत तले,
पुराने दिन, छाँव स्थल, रिश्ते सब,
चकाचौंध भरी दुनिया विस्मृत लम्हें,
भूले नींब आधार जीवन तरु,
अवशेष बस टीश देती बीती बातें,
यायावर नव जीवन पथ पर बचे,
संघर्ष के बिताये अहर्निश परहित पल।
खड़े हम आज उस मुहाने पर,
ले नवजीवन द्रुतगति पथ अविरत,
अबाध रनिवासर युगान्तर नूतन पथ,
किन्तु संवेदित परमार्थ निरत कीर्तिरथ,
मुस्कान व सम्मान बन परमुख अधर,
अभिलाष की नवाश बन मानव मन,
योगी सहयोगी उपयोगी ओ भारत बन
सुरभित कुसमित कुसुम निकुंज मन
सुखद यादों को समेटे अवसाद गम,
चिर बीते अनुभूत सीख नवनीत बन,
शेष जीवन के अनुपम कुछेक क्षण,
बस यादें अन्तस्तल सुख दुःख की,
सहेजी गाँठ बन अनकही बातें।
डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" - नई दिल्ली