फैलाये थी हाथ,
कुछ बहाने झूठे थे
अपंगता भी झूठी थी
मगर सच्चे थे जज्बात,
थी बस भूख में सच्चाई
पथराई आँखों में गहराई
तन पर फटे हुए वसन
बस खुद को छिपाई थी,
पेट पीठ को छू रहा
हड्डियों का ढ़ांचा था तन
दो रोटियों की भीख
सारे तिरस्कार कर सहन
किसी ने दो रोटी दी
वो खुद खायी नहीं
कहीं उठकर चल दी
वो किसी को बतायी नहीं,
कोई उसका भूखा था
वो चन्द कदम दूर था
भूख और बीमारी से
वो भी कितना मजबूर था,
उसे खिलाकर शायद आज
भी भूखी रहेगी भिखारिन
खुश थी आज भूख मिटी
फिर रोयेगी बहाने बनाएगी
कुछ नया कहेगी।।
सूर्य मणि दूबे "सूर्य" - गोण्डा (उत्तर प्रदेश)