रवि शंकर साह - बलसारा, देवघर (झारखंड)
बाल मजदूर - कविता - रवि शंकर साह
सोमवार, अक्टूबर 05, 2020
नन्हा - मुन्हा सा था मैं।
नाजो से माँ ने ही पाला।
माता पिता का राजदु लारा।
नियति की ऐसी मार पड़ी।
मैं हो गया अब अनाथ।
कहते है अब सब हमको।
छोटू तो कोई छोटू उस्ताद।
मेहनत मजदूरी करता हूँ।
बाल मजदूर कहलाता हूँ।
काम में करता हूँ बड़ो-सा
पर पगार पाता छोटा-सा।
ईट-भट्ठे और छोटे बड़े होटल
अपना अब आशियाना है।
खाना परोसना, बर्तन धोना
रातों में जगकर काम करना
नियति का अब सिर्फ रोना है।
हम मिल जाते हैं उन सभाओं में
जहां बालमजदूरी उन्मूलन के
बड़े बड़े ही चर्चे होते रहते हैं।
राजनीतिक दलों के बैठकों में
हम बालमजदूर मिल जाते हैं
सम्भ्रांत लोगों को पानी पिलाते।
वहाँ चलती है सभाएं अक्सर
बाल उन्मूलन, बाल मजदूरी पर।
विचार किया जाता है इस पर
अधिकारियो को वर्क दिया जाता है।
बाल मजदूरी खत्म करने का।
बाल उन्मूलन अभियान चलाने का।
बड़े बड़े नेता और अधिकारी गण
प्लान के साथ लच्छेदार भाषण देते हैं।
हमें लगता है कि हमारे दिन बिसरेंगें।
सभा समाप्त, तालियो की गड़गड़ाहट है
सभी लोगों को हम नाश्ता पानी देते हैं।
हम आने वाले कल के सपने में खो जाते हैं।
तभी मालिक का आवाज आता है।
जल्दी जल्दी काम कर जूठे बर्तन धो।
वह भाषण तुम्हारे लिए नहीं है।
ऐसा भाषण सुनते ही रहते हैं।
भाषण से जनता का पेट नहीं भरता।
नेताओं और अफसर का चलता है।
ये सब एक ही थाल के चट्टेबट्टे है।
जा सिलबट्टे पर मसाला पीस,
उसमे अपने बचपन को घिस।
जब तू बड़ा हो जाएगा, मताधिकार का हक पाएगा।
यदि सोच विचार कर मताधिकार का उपयोग करेगा।
शायद बाल मजदूर का ठप्पा तेरा ये मिट जाएगा।
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