प्रवीन "पथिक" - बलिया (उत्तर प्रदेश)
अन्तर्द्वन्द - कविता - प्रवीन "पथिक"
गुरुवार, नवंबर 19, 2020
कभी कभी,
एक अजीब अन्तर्द्वंद!
झकझोर देता मन औ मस्तिष्क को।
घोर अवसाद मेघ बन,
अच्छादित होता जीवन में,
कर देता गतिहीन,
प्रारब्ध के पहिए को।
एक अज्ञात चिंता,
स्याह कर देती भवि के पन्नों को।
डूबा देती ज्ञान, विवेक,
अज्ञानता के भयावह गर्त में।
इन चिंताओं का अनुसंधान,
प्रतीत होता अंधेरे में शर संधान सदृश।
विचार शून्यता में विलीन,
दीवार के किसी ईंट पर;
अवलंबित, समाधिस्थ!
इहलौकिकता से दूर,
भान कराती अपनी अदृश्यता का; शून्यता का।
तथापि: प्रश्न: अनुत्तरित
मनोदधि
घोर निराशा से आवृत
चैतन्यता
परिवर्तित होती सामाजिकता में
यथावत:
उसी अन्तर्द्वन्द के साथ
छोड़ जाती, वही प्रश्न
गहन अन्तर्विरोध के रूप में
मानस पटल पर
चिर : शाश्वत।
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