विनय "विनम्र" - चन्दौली (उत्तर प्रदेश)
माँ भागीरथी वेदना - कविता - विनय "विनम्र"
बुधवार, जनवरी 13, 2021
है, जय करना बेकार तेरा,
अब कचरे का मजधार मेरा,
मैं चैन से, स्वर्ग में रहती थी,
देवों के अंतस बहती थी,
वेदों का होता पाठ जहाँ,
सतयुग करता है, वास जहाँ,
सब सुफल मनोरथ काम वहाँ,
शिव ब्रह्मा, विष्णु धाम वहाँ,
मैं शिव के शरण में रहती थी,
शीतल पावन हो बहती थी,
ग्रह नक्षत्र सब निखर निखर,
जल से पावन मेरे होकर,
सूर्य शिखर की अग्नि प्रखर,
अंतस मेरा जाता था निखर,
रवि, चाँद हृदय में रमण मेरा,
निश्चल होता था, भ्रमण मेरा,
अखंड खंड सब तारा मंडल,
हो रहे स्वच्छ, जल के अन्दर,
घाटो पर देवों का संगम,
सृष्टि देखती दृश्य विहंगम,
पर पता नहीं क्या घटित हुआ,
भागीरथी तपस्या प्रकट हुआ,
अब भू पर जाना था मेरा,
ये आदेश प्रकट ब्रह्मा का था,
जिसने सृष्टि को रचित किया,
आज्ञा पालन करना हीं था,
भू के पापों को हरना था,
पापी को पावन करना था,
मैं चली स्वर्ग से भू की ओर,
प्रबल वेग भीषण घनघोर,
ग्रह नक्षत्र डगमग डोले,
अब कौन बचे भू पर बोले,
विकराल काल भीषण संवेग,
सह पाये कहाँ ये क्षितिज वेग,
भू की चिंता फिर कौन बचे,
शिव हो प्रस्तुत, कर्तव्य रचें,
सब देव चले शिव धाम जहाँ,
योगी रमते निष्काम वहाँ,
स्तुति शिव ने, उनका माना,
कल्याण भरा, पथ है जाना,
है जटा रुप विकराल दिया,
सुरसरि उसमें, अंगीकार किया,
गंगा शिवलट, ऐसे सुलझी,
जो आकाश बवंर तरू में उलझी,
फिर जटा एक लट खोल दिया,
भागीरथ ने जय बोल दिया,
आगे भागीरथ पूण्य धाम,
पीछे मैं चली सहज निष्काम,
हिम से चलती है सहज धार,
शिव के काशी को किया पार,
मन हीं मन प्रणाम मैंने की,
फिर आगे जाने की सुधि ली,
गंगा सागर तक वास मेरा,
पावन कल कल, विश्वास भरा,
सागर पुत्रों को मैनें तरा,
जो श्रापित हो मृत पडे धरा,
अब त्रेता आया पूण्य धाम,
चहुओर सहज दिखते थे राम,
सीता लक्ष्मण संग सहज योग,
वन जाने का था विरह वियोग,
उनके सादर रज चरण छुई,
पृथ्वी पर आकर धन्य हुई,
अब धरा, स्वर्ग से भिन्न न था,
मार्ग मेरा अविछिन्न जो था,
अब आया द्वापर द्वार मेरे,
था पूण्यों का अंबार मेरे,
श्री विष्णु ने अवतार लिया,
श्रीकृष्ण ने पावन धरा किया,
मैं भीष्म पितामह की माँ थी,
उस काल पुरुष की जननी थी,
सत्कर्मी थे सब दिव्य धाम,
श्री गीता सा शुभ कर्म निष्काम,
उनमें भी कुछ थे क्रूर प्रकृति,
धृतराष्ट्र, सुयश मानव आकृति,
पर मान मेरा सबने रक्खा,
सम्मान मेरा सबने रक्खा,
मेरी पूजा सब ओर हुई,
मैं धन्य धन्य फिर धन्य हुई,
आया कलयुग घनघोर काल,
मानव का रुप विकृत,विकराल,
मेरे पावन सुन्दर जल को,
विष बना दिया, इस निर्मल को,
कचरे का सब अंबार मुझी में,
हर मल जल का परवाह मुझी में,
मुझको बाँधों से बाँध दिया,
मैं थी असाध्य, पर साध दिया,
अब जल मेरा अवरोधित था,
पढे लिखों में शोधित था,
इसमें मानव स्नान करे,
या केवल वो जलपान करे,
अब स्वांस मेरी है, छूट रही,
अविरल धारा भी टूट रही,
अब रोकर कहूँ वेदना किससे,
सार्थक जो सुने, देव उससे,
अब जय करना बेकार तेरा,
अब कचरे का जलधार मेरा।।
साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos
विशेष रचनाएँ
सुप्रसिद्ध कवियों की देशभक्ति कविताएँ
अटल बिहारी वाजपेयी की देशभक्ति कविताएँ
फ़िराक़ गोरखपुरी के 30 मशहूर शेर
दुष्यंत कुमार की 10 चुनिंदा ग़ज़लें
कैफ़ी आज़मी के 10 बेहतरीन शेर
कबीर दास के 15 लोकप्रिय दोहे
भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है? - भारतेंदु हरिश्चंद्र
पंच परमेश्वर - कहानी - प्रेमचंद
मिर्ज़ा ग़ालिब के 30 मशहूर शेर