डॉ. ममता बनर्जी "मंजरी" - गिरिडीह (झारखण्ड)
मैं ममता हूँ (भाग ४) - कविता - डॉ. ममता बनर्जी "मंजरी"
सोमवार, फ़रवरी 01, 2021
(४)
कहती है ममता अपनी कथा निराली है।
यूँ मन से जल्दी वह न निकलने वाली है।
समय मिले तो इतिहास कभी खंगालो तुम।
हुई नहीं किसी काल में भी ममता यूँ गुम।
मैं कुंती कैकेयी गंगा गांधारी हूँ।
ख़ुद पर दाँव लगाए ख़ुद ही से हारी हूँ।
हारी मगर न काल-जनित झंझावातों से।
डरी कभी नहीं तमस अंधेरी रातों से।
आज हजारों दुःशासन भू पर चरते हैं।
अट्टहास कर नारी की लज्जा हरते हैं।
ममता तड़प-तड़प कर यूँ आहें भरती है।
खुद को धिक्कारा रो-रो कर तब करती है।
गर्वित भरत-कर्ण सम सपूत पर भी होती है।
गंगा बन कर पाप पापियों का ढोती है।
मैं आशा सपना तृष्णा और विवशता हूँ।
सम्पूर्ण ब्रह्म ही मेरा है- 'मैं ममता हूँ'।।
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