अज़हर अली इमरोज़ - दरभंगा (बिहार)
बसेरा - ग़ज़ल - अज़हर अली इमरोज़
शुक्रवार, मार्च 19, 2021
आरज़ू याक़ूत का रखता नहीं दौरे रवैयाँ।
प्यार मेरी ज़िन्दगी है, आबखूरा में सवैयाँ।।
फूस घर में रह रहा हूँ, होश को सम्भाल करके,
घर तुम्हरा ही नहीं है, ले बसेरा-ए-चिड़ैयाँ।
बर्फ़ जैसे ये पिघलती ज़िन्दगी, दरिया सा रिश्ता,
मौज मस्ती में गुज़ारूँ, ये जहाँ इग्लू घरैयाँ।
शबनमी है रात मेरी सरसरी परछाइयों में,
काम के जो सिलसिलों में घूमता ये कारवैयाँ।
यूँ समझ लेना कभी इमरोज़ के गहराइयों से,
सागरों को तैरता जो जीव वो मछली तरैयाँ।
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