राम प्रसाद आर्य "रमेश" - जनपद, चम्पावत (उत्तराखण्ड)
चादर - कविता - राम प्रसाद आर्य "रमेश"
मंगलवार, अप्रैल 27, 2021
मैं लम्बा मेरी चादर छोटी,
कैसे पाँव पसारों मैं?
किसकोे अपनी ये व्यथा बताओं,
किसकी तरफ़ निहारों मैं?
गिनी-चुनी तनख़्वाह मेरी,
है अनगिन आवश्यकता।
माँ, बाप, बीबी, बच्चे, सब
मुँह मेरे ही तकता।।
नौकर मैं सरकार का हूँ,
पर मालिक तो हूँ घर का।
अपने भी मुँह मोड़ चुके अब,
भरोसा बस ईश्वर का।।
उसने है जब मुझे बढाया,
चादर भी वही बढाएगा।
सांता क्लॉज बन हर क्रिशमश को,
नव चादर नित दे जाएगा।।
देख रहा औ माप रहा वो,
मेरे इस क़द औ पद को।
सोच रहा कहिं लाँघ न जाऊँ मैं
निज धैर्य, विश्वास की हद को।।
लेकिन मैंं भी वो शख़्स हूँ,
जीवन-रण हार न मानूँगा।
निष्काम, कर्म निःस्वार्थ करूँगा,
चादर तक ही पग तानूँगा।।
मिथ्या, मोह, मद, और दिखावे,
से नित दूर रहूँगा।
मन का दर्द मन ही में दबाकर,
सच सरि संग बहूँगा।।
देने को गर दाना न घर में,
प्रेम-दान तो मैं कर सकता हूँ।
कोई भले मुझे कुछ भी समझे,
मैं जो हूँ, वही बकता हूँ।।
मैं लम्बा, मेरी चादर छोटी,
कैसे पाँव पसारों मैं?
किसकोे अपनी ये व्यथा बताओ,
किसकी तरफ़ निहारों मैं?
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