डॉ. ममता बनर्जी "मंजरी" - गिरिडीह (झारखण्ड)
रोटी की भूख - कविता - डॉ. ममता बनर्जी "मंजरी"
मंगलवार, अप्रैल 13, 2021
झारखण्ड के कोयलांचल में
जीने की ललक...
चंद रोटियों को तलाशती है
किसी कोयले की टोकरी में
कि
गुम हो गई हो
काली अँधियारे में...
गोल-गोल
नरम-नरम रोटियाँ !
या छुप गई हो...
बंद पड़े खदानों के
काली अँधेरी सुरंगों के
हाड़तोड़ परिश्रमी
सौ टकिये श्रमिकों के
पसीने से सराबोर
काले अँगोछे में...
या फिर
दब गई हो...
कोयला श्रमिकों के संग
चाल धँसने के क्रम में...
समा गई हो रोटियाँ,
श्रमिकों की ज़िंदगी के साथ
बेरंग जल समाधि में...
लबा-लब
गोल-गोल रोटियाँ।
या फिर
होकर मजबूर
चिपक गई हो रोटियाँ..
झुग्गी-झोपड़ी के
हज़ारों छौआ-चेंगर के
कुम्हलाए पेटों पर...
किसी फाटक के
सैंकड़ों अपाहिज भिखमंगों के...
ललाटों के सिलवटों पर...
या फिर
उड़ गईं हो रोटियाँ...
छोटी-छोटी गौरेयों सी
किसी और जगत की खोज में...
फूर्र- फूर्र!
या फिर
जुए के अड्डे में...
किसी दारू-भट्ठे में
नशे में चूर-चूर...
कहीं बहुत दूर...
शायद बिक गई हो रोटियाँ
विस्तृत बाज़ार में..
पैसों के हाहाकार में
जार-जार...
शायद हो गुलज़ार...
कल-कारखानों में,
बपौती थानों में,
आलीशान मकानों में,
आधुनिक दुकानों में
सार-सार...
विदेशी लज़्ज़तदार
स्वाद वाले रेस्तराँ के
कतारबद्ध युवाओं के लिए
सजाए गए थालों में...
जहाँ पश्चिमी संगीत
के धुन पर
थिरकती हैं रोटियाँ...
ढिनचक-ढिनचक!
शायद जीने की ललक
मर न जाए
वर्ना
मरघट से आती चीखें
चीख-चीख कर
कोयलांचल के गलियों में
रोटियों की भीख माँगेगी,
सुखे नाखुनों से
धरती की कोख तराशेगी
खसर-खसर...
इससे बेहतर...
सीख ले अगला वंशज
रोटियों के बिना जीना,
और
दूध के बजाय
अलकतरा पीना!!
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