सुनील माहेश्वरी - दिल्ली
रंगमंच असल ज़िंदगी का - कविता - सुनील माहेश्वरी
सोमवार, मई 17, 2021
हँसने की इच्छा ना हो
तो भी हँसना पड़ता है।
जब कोई पूछे कैसे हो?
तो मज़े में हूँ कहना पड़ता है।।
फटेहाल हो हम चाहे कितने,
शिकन की चादर हटानी पड़ती हैं।
आर्थिक तंगी से जूझने पर भी
जेब से पैसा ढीला करना पड़ता है।।
शरीर चाहे साथ दे या ना दे,
नौकरी पर फिर भी जाना पड़ता है।
माइंडसेट, सेट हो चाहे ना हो,
घर में सोफासेट लगाना पड़ता है।।
ये ज़िंदगी का रंगमंच है दोस्तों,
यहाँ हर एक को नाटक करना पड़ता है।
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