असीम चक्रवर्ती - पूर्णिया (बिहार)
भूख - कविता - असीम चक्रवर्ती
मंगलवार, जून 22, 2021
हमने भूख को देखा है
पेट में पलते हुए।
भूख को अनुभव किया है
बार-बार जन्म लेते हुए।
भूख को देखा है
चिलचिलाती धूप में
कामगार मज़दूरों के
पीठ को जलाते हुए।
भूख को देखा है
किसानों की मिट्टी में
पाँव को दबाते हुए।
भूख को देखा है
छाती से लगाए
मासूम अबोध बच्चों के ओंठो में।।
भूख देखा है हमने
ग्लैसियर में जमाने वाले खून में।
भूख देखा है हमने
फैक्ट्रियों में ज़हरीले गैस में
साँस लेते हुए मज़दूरों में।
भूख देखा है हमने
अनेक अट्टालिकाओ में
रहने वालों के जेब में भी।
हर किसी की भूख
अलग-अलग क़िस्म की होती है!
मगर भूख की अनुभूति
एक सी होती है।
कोई भूख को चुप कर देता
तो कोई स्वागत करता।
कोई भूख का लुप्त उठाता
तो कोई पास फटकने नहीं देता।
हर भूख तन में जलाती है
एक ज्वाला।
कोई पानी से मिटाता
कोई रोटी से।
सोना मात्र चमकाने के लिए
होता है।
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