अशोक शर्मा - लक्ष्मीगंज, कुशीनगर (उत्तर प्रदेश)
पर्यावरण और मानव - घनाक्षरी छंद - अशोक शर्मा
गुरुवार, जुलाई 22, 2021
धरा का शृंगार देता, चारो ओर पाया जाता,
इसकी आग़ोश में ही, दुनिया ये रहती।
धूप छाँव जल नमीं, वायु वृक्ष और ज़मीं,
जीव सहभागिता को, आवरन कहती।
पर देखो मूढ़ बुद्धि, नही रहीं नर सुधि,
काट दिए वृ देखो, धरा लगे जलती।
कहीं सूखा तूफ़ाँ कहीं, प्रकृति बीमार रही,
मही पर मानवता, बाढ़ में है बहती।
वायु बेच देता नर, साँसों की कमीं अगर,
लाशों से भी बेच देता, भाग ठीक रहती।
किला खड़ा किया मानो, जंगलों को काटकर,
ख़ुशहाली देखो अब, कम्पनों में ढहती।
भू हो रही उदास, वन दहके पलाश,
जले नर संग तरु, जब चिता जलती।
बरस ज़हर रहा, प्रकृति क़हर रहा,
खोट कारनामों से, जल विष बहती।
वृक्ष अपने पास हों, तो दस पुत्र साथ हों,
गिरे तरु एक धरा, बड़ा दर्द सहती।
ऐसे करो नित काम, स्वस्थ बने तेरा धाम,
स्वच्छ वात्तरु जल से, धरा ख़ुश रहती।
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