बृज उमराव - कानपुर (उत्तर प्रदेश)
रूठे कान्हा - कविता - बृज उमराव
सोमवार, अगस्त 30, 2021
कान्हा रे कान्हा ग्वालों संग,
मेरी गली तू आजा।
चलते हैं सब कालिन्दी तट,
आकर दरस दिखा जा।।
बीत गए दिन कितने सारे,
रास नहीं है रचाया।
न की तूने माखन चोरी,
न तू ढिंग में आया।।
तेरी प्यारी-प्यारी बतियाँ,
सुनने को दिल करता।
चाहे जितना छेड़े सबको,
कितना भी तंग करता।।
निर्मल जल ज्यों यमुना जी का,
दिल उतना ही साफ़।
ग़ुस्सा छोड़ो नहीं चिढावें,
कर दो हमको माफ़।।
ख़बर पठायी श्री दामा से,
तब भी तुम न आए।
कमी तुम्हारी एक अकेली,
ग्वाल बाल सब आए।।
जाती हैं हम सारी सखियाँ,
यमुना जल भर लाएँ।
याद कर रही सखी सहेली,
तुमको वहाँ बुलाएँ।।
ग्वाल बाल सब गोपी सखियाँ,
तुमको करती याद।
आ जावो तुम यमुना तट पर,
एक यही फ़रियाद।।
राह देखते तेरी सारे,
गिन-गिन समय गुज़ारें।
जतन करें कुछ ऐसी सब मिल,
कैसे तुम्हें बुला लें।।
नहीं सताओ अब तुम ज़्यादा,
झट यमुना तट आओ।
गिले और शिकवे सब मेंटें,
बंसी ज़रा सुनाओ।।
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