पारो शैवलिनी - चितरंजन (पश्चिम बंगाल)
रोटी की तलाश - कविता - पारो शैवलिनी
शुक्रवार, सितंबर 03, 2021
संसद
अँधेरी गुफा बन गई है
जहाँ से
रोटी के लिए लगने वाली आवाज़,
उसकी दीवार से टकरा कर वापस लौट आती है।
सोचता हूँ
वो कौन सी भाषा है, जो
संसद में सुनी जाती है?
उस भाषा के व्याकरण को संसद से बाहर
निकालना होगा
गंगाजल से उसे
धोना होगा, उपरांत
हमारे पवित्र ग्रंथों से पूर्व
इस भाषा के व्याकरण को गले लगाना होगा
जिसमें छिपी हुई है
रोटी की राजनीति।
व्यवस्था को फटकारते हुए,
न्यायपालिका के ऊँचे गुम्बद से जब
चाँद देखता हूँ, तो मुझे
रोटी की याद आती है।
पेट की आग से हार कर
अंदर की आग को दबाकर जब
मानवता को हलाल होते देखता हूँ तब,
पथराई और दहकती
दावानल के बीच
व्यवस्था पर थूकते हुए
आगे बढ़ जाता हूँ
रोटी की तलाश में।
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