आओ दिनकर - कविता - सुरेंद्र प्रजापति

आओ दिनकर, फिर सत्ता से
जनता का कठोर, सवाल करो।
हताशा, क्षोभ, विपदा के आँसू,
पोछो मत, एक हुंकार भरो।

ओज, किरण, ऊष्मा का नेता
चेतना का, विघ्नों का दर्पण।
क्या हाल सुनाऊँ, काल तुम्हें?
अधिकार सुनो, कर दो अर्पण।

सुनो, वसुधा के महा-नायक,
लो कविता का, आयुध चुनों।
निरंकुश हो चुका सिंहासन,
अंधियारे शांति में, युद्ध चुनो।

सारथी बनो जनता के रथ का
पुरुषार्थ का बल, क्षीण हुआ।
भूखी प्यासी जनता के तेवर,
तेज़ प्रकाश में, मलिन हुआ।

बेबस माँ की, बूढ़ी छाती को
निचोड़ो! बच्चे का दूध नहीं।
क्षुधा, भटक रही मरघट में-
शांति  उपवन में बुद्ध नहीं।

ओ कविता कहाँ? स्पंदित कर दो
साहस, धमनी में धड़को-धड़को।
संवेदना के कुछ बुँदे चुनकर
नहीं करो विलाप, आँसू, भडको।

आलस्य, प्रमाद के मेघ उतर
चढ़ व्योम में, तेज़ का पुंज सुनो।
ढूँढ़ो प्रहार, कठिन श्रम में कवि
तूफ़ानों में, संघर्ष का गूँज सुनो।

चिर शांति-सुख, शीतल वायु में
पर, सीखो गरल तूफ़ानों से।
अरे! इस वीणा में  उन्माद कहाँ?
शृंगार करो, अग्नि के वाणों से।

सुरेंद्र प्रजापति - बलिया, गया (बिहार)

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