रोहताश वर्मा 'मुसाफ़िर' - खरसंडी, हनुमानगढ़ (राजस्थान)
अनोखा खेल विदाई का - कविता - रोहताश वर्मा 'मुसाफ़िर'
सोमवार, दिसंबर 13, 2021
बचपन के सब खेल खिलौने...
धीरे-धीरे दूर हुए!
माँ के आँचल में छुप्पम-छुपाई,
मिट्टी के मंदिर चकनाचूर हुए!
धीरे-धीरे पढ़ना-लिखना आया,
बढ़ा जोर पढ़ाई का!
अलविदा बचपन की अमीरी,
अनोखा खेल विदाई का!!
मात-पिता ने हिम्मत जोड़ी,
कुछ बनने का एहसास दिया!
कठिन पथ पर कायम क़दम,
गुरूओं ने आत्मविश्वास दिया!
लालसा उमड़ी घटा की तरह,
बढ़ा कदम चढ़ाई का!
अलविदा बाल्यावस्था की नाव,
अनोखा खेल विदाई का!!
एक तरफ़ कुछ बनने का जुनून,
एक तरफ़ है मोह माया!
अलग-अलग मित्रों की संगत,
स्कूल, कॉलेज रिश्तों का साया!
हुई पूरी पढ़ाई ये सब छूटा,
उत्सव, उमंग, सच्चाई का!
अलविदा जवानी का सफ़र,
अनोखा खेल विदाई का!!
हासिल हुई मन की मंज़िल,
ज़िम्मेदारी कंधे का भार बढ़ा!
घर आँगन में ख़ुशियाँ फैली,
संग जीवन, संसार बढ़ा!
नया जीवन, नई राहे,
दौर शुरू मेहनत कमाई का!
अलविदा वयस्क की करनी,
अनोखा खेल विदाई का!!
चलना फिरना बंद हुआ,
बोझ वृद्ध-तन का आया!
फिर से बचपन जैसा बसर,
स्कूल, कॉलेज स्मरण कर मुस्काया!
यही सफ़र है अजब का आलम,
मनुज रस्म निभाई का!
अलविदा चिंतित मन,
अनोखा खेल विदाई का!!
घर का पहरेदार बना,
बैठा खटिया पर सोया रहा!
कुशल-मंगल जीवन-लीला सम्पन्न,
नश्वर जग में खोया रहा!
मुक्ति का द्वार पाकर,
देखा तमाशा जग हँसाई का!
अलविदा ये सांसारिक मोह,
अनोखा खेल विदाई का!!
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