अमरेश सिंह भदौरिया - रायबरेली (उत्तर प्रदेश)
मैं भला नहीं - कविता - अमरेश सिंह भदौरिया
सोमवार, जनवरी 10, 2022
साँचे में तुम्हारे ढला नहीं।
बस इसिलए मैं भला नहीं।।
वामन जैसा शीश पर,
अपने अगर मैं पाप लेता।
दो डगों में ये तुम्हारी,
सृष्टि पूरी नाप लेता।।
कागवंशी प्रशस्तियों को,
मैं कभी भी पढ़ न पाया।
प्रगति के सोपान शायद,
इसलिए मैं चढ़ न पाया।।
यायावरी रही हिस्से में,
शिखर कहीं भी मिला नहीं।।
नेपथ्य में रहकर सदा,
सम्भावना सा द्वार देखा।
इंद्रधनुषी कल्पनाओं से,
सजा संसार देखा।।
एक भी कन्धा मिला न,
शीश जिस पर मैं टिकाता।
अन्तःकरण का दर्द सारा,
आँसुओं संग मैं बहाता।।
इससे ज़्यादा क्या कहूँ,
मैं आदमी हूँ पुतला नहीं।।
मित्रता जब प्रीति बनकर,
राजसत्ता द्वार रोई।
स्वाभिमानी दम्भ टूटा,
नियति ने पलकें भिगोई।।
ख़ामोशी है इस क़दर,
कि ओंठ तक हिलते नहीं।
अफ़सोस है कि आज,
केशव दीन से मिलते नहीं।।
वास्तविकता है यही और,
कहते हो कुछ बदला नहीं।।
वट-वृक्ष हो तुमको मुबारक,
अपनी तो नीम ही भली।
फल भले कड़वे हो इसके,
पर छाँह मिलती शीतली।।
उपलब्धियों की चर्चा तुम्हारी,
मैंने बहुत देखी सुनी।
क़दम जब अपना बढ़ाया,
राह ख़ुद अपनी चुनी।।
बनी बनाई पगडण्डी पर,
मैं कभी भी चला नहीं।।
सफलता असफलता यहाँ,
सब क़िस्मत का खेल है।
धूप और छाँव का ये,
अजब ताल-मेल है।।
ब्रह्मऋषि बनने का,
मन में विश्वास है।
कौशिक जैसा हौसला,
अपने भी पास है।।
देवलोकी अप्सरा ने 'अमरेश',
जाने क्यों छला नहीं।।
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