सुरेंद्र प्रजापति - बलिया, गया (बिहार)
सृजन के क्षण - कविता - सुरेन्द्र प्रजापति
बुधवार, जनवरी 05, 2022
रात्रि सुख स्वप्न लेती,
मौन की चादर लपेटी।
एक जीवन, या कि अर्पण सोम मेरे हाथ में है,
एक अकिंचन यात्रा का दर्द मेरे साथ में है।
प्रकृति सतत खेलती है,
धरा प्रलय को झेलती है।
सौंदर्य-रूप कहो कब स्वप्न में मैले हुए हो?
दे रही आमन्त्रण और व्योम तक फैले हुए हो।
प्रीत से ज्योति बनी है,
पुष्प से ख़ुश्बू घनी है।
प्यार के मल्हार उठकर चाँदनी तक खींच आई,
होंठ के रक्ताभ दल पर एक चुम्बिश सींच आई।
वासना का ज्वार उठा,
सागरों से चाह रूठा।
उस कौतुहल सी नज़र उमंग से नहला रही,
हृदय में भरकर बाँह नस में आग से सहला रही।
उमंग में रुकना मना है,
इच्छा की अवहेलना है।
रूपसी की कसमसाहट से बादल जैसे लिपटता,
रौंदता है अंग-अंग विरोध में
आँसू छलकता।
एक तुझमे राग प्रबल,
जागती है राख शीतल।
साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos
विशेष रचनाएँ
सुप्रसिद्ध कवियों की देशभक्ति कविताएँ
अटल बिहारी वाजपेयी की देशभक्ति कविताएँ
फ़िराक़ गोरखपुरी के 30 मशहूर शेर
दुष्यंत कुमार की 10 चुनिंदा ग़ज़लें
कैफ़ी आज़मी के 10 बेहतरीन शेर
कबीर दास के 15 लोकप्रिय दोहे
भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है? - भारतेंदु हरिश्चंद्र
पंच परमेश्वर - कहानी - प्रेमचंद
मिर्ज़ा ग़ालिब के 30 मशहूर शेर