शेख रहमत अली 'बस्तवी' - बस्ती (उत्तर प्रदेश)
आज मैं कुछ लिखना चाहता हूँ - कविता - शेख रहमत अली 'बस्तवी'
सोमवार, फ़रवरी 28, 2022
लिखते हैं सब, आज मैं भी
कुछ लिखना चाहता हूँ।
गूगल हो या अमेज़ॉन
हर जगह बिकना चाहता हूँ।
अदाकारी भी हो मुझमें
व जुनूँन इस तरह का हो,
लाखों ज़ुबाँ पे गुलज़ार की
तरह दिखना चाहता हूँ।
न जाने कितने ही मजनूँ
क़ुर्बान हुए हैं मोहब्बत पर,
मैं भी अपनी मोहब्बत पर
ऐसे मर मिटना चाहता हूँ।
इतिहास लिखा जाए मोहब्बत
का स्वर्ण अच्छरों में,
हज़ार साल इतिहास के
पन्नों पर टिकना चाहता हूँ।
फ़ारिग़ हो जाऊँ ज़िंदगी के
सभी ज़रूरी कामों से,
भीड़ की ज़िंदगी छोड़ कर
इतवार होना चाहता हूँ।
कई ज़ख़्मों के दर्द दफ़न हैं
जो मुद्दत से मेरे सीने में,
अपने दर्द को निचोड़ कर
फ़नकार होना चाहता हूँ।
शोभा बनूँ इस नीले आसमान
का मर्तबा हो ऐसा,
सूरज भी चन्दा भी तारों की
बारात होना चाहता हूँ।
हर कविता की इमारत बने
मेरे मीठे शब्दों के ईंट से,
लिखूँ हर विषय पर ऐसे
ख़ुशमिजाज़ी होना चाहता हूँ।
ज़िंदगी के सभी राज़ भी
सुर, संगीत, और साज़ भी,
संग-संग में आशा का
उड़ता पतंग होना चाहता हूँ।
हँसी, ख़ुशी का ज़िक्र हो
जहाँ स्वर्णिम भविष्य में,
वो सफ़ेदी में लुप्त संगमरमरी
उमँग होना चाहता हूँ।
ख़ूब सुनी है दादी नानी से
जादूगरों की कहानियाँ,
पत्थर बने सब बाराती का
क़िस्सा होना चाहता हूँ।
हर कहानी का अंत हो
अलादीन नाम तो सुना होगा,
जिनूँ के तिलिस्मी जादू का
हिस्सा होना चाहता हूँ।
जिस तरह गाँव में सब
रीति-रिवाजों से बंधे रहते हैं,
आला है हर धर्म इस बात से
सहमत होना चाहता हूँ।
हर धर्म ग्रंथों के मुताबिक़
ईश्वर अल्लाह सब एक हैं,
ख़ुदा के अज़मतों का मैं भी
"रहमत" होना चाहता हूँ।
माँग गुज़र-बसर जो करता
फ़क़ीर होना चाहता हूँ,
कटती न हो बातें ऐसी
लकीर होना चाहता हूँ।
कवि तुलसीदास रहीम और
कबीर होना चाहता हूँ,
तेज़ धार हो क़लम की मैं
शमशीर होना चाहता हूँ।
मंदिर-मस्जिद के नाम पर
अब न ही कोई दंगा हो,
इंसानियत दिल के अंदर हो
इंसान होना चाहता हूँ।
नहीं नक़ाब की तलब मुझे
भगवा की तूं चाह न कर,
हिंदुस्तानी हों सभी ऐसा
हिंदुस्तान होना चाहता हूँ।
शान की ख़ातिर भले
क़ुर्बान होना पड़े इस देश पर,
आसमाँ पर नाम हो और
फ़लक होना चाहता हूँ।
ला मैं तेरी गीता को पढ़ लूँ,
तूं पढ़ ले मेरा क़ुरआन।
रहमान की टोपी राम लगाए
मैं तिलक होना चाहता हूँ।
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