बृज उमराव - कानपुर (उत्तर प्रदेश)
इश्क़ और अश्क - कविता - बृज उमराव
रविवार, मई 29, 2022
इश्क़ के अश्क जो आँखों में,
भाव न इनका पढ़ पाया।
असमंजस में दो राहे पर,
राह न अपनी चुन पाया।।
आँखों से लुढ़क कर गालों में,
इक स्याह लकीर उभर आई।
अनबूझ पहेली एक बनी,
सबके जीवन की तरुणाई।।
मन में जब एक प्यास जगी,
दरिया का था पता नहीं।
शैलाब उमड़ता नैंनों से,
उनकी तो थी ख़ता नहीं।।
आह निकलती जब दिल से,
अहसास उन्हें होता होगा।
टीस जिगर में जब उठती,
मन उनका भी रोता होगा।।
प्रत्युत्तर में नज़रें नीची,
लकीर ज़मीं पर खिंचती हो।
आहों की आँधी के संग में,
अश्कों की नदियाँ बहती हों।।
प्यार सदा परवान चढ़े,
रहे सुगमता राहों की।
आँखों का आमंत्रण हो,
गुत्थी बनती हो बाहों की।।
ये अश्क बड़े ही महँगे हैं,
इन्हें सँभाले तुम रहना।
इनकी क़ीमत दाता जानें,
बर्बाद इन्हें तुम मत करना।।
भावों का प्रादुर्भाव हुआ,
इनके बाहर आने से।
अहसास दर्द का तब होता,
इनके बाहर बह जाने से।।
ग़म का दरिया बड़ा कठिन,
पार तो जाना ही होगा।
जैसा भी अंजाम मिले,
उसे निभाना ही होगा।।
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