संजय राजभर 'समित' - वाराणसी (उत्तर प्रदेश)
शीश महल - कविता - संजय राजभर 'समित'
शुक्रवार, सितंबर 16, 2022
पारदर्शी हो
जो कुछ न छुपाता हो
अंदर बाहर एक समान
एक खुली किताब की तरह।
जैसे–
आत्मा
जिसमें न घात न प्रतिशोध हो
केवल प्रेम हो
दया परोपकार हो
सकारात्मक चिंतन हो
जो ह्रदय में है
वही कर्म में हो
सब कुछ स्पष्ट
जैसे–
शीश महल।
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