राघवेन्द्र सिंह - लखनऊ (उत्तर प्रदेश)
मैं हूँ अतीत की लखनपुरी - कविता - राघवेंद्र सिंह
शुक्रवार, अगस्त 25, 2023
कोसल का हूँ मैं प्रणित अंश,
उत्तर प्रदेश की स्वयं धुरी।
हूँ अवधपुरी की मैं अनुजा,
मैं हूँ अतीत की लखनपुरी।
मैं स्वयं विरासत सूर्यवंश,
वैदिक, पौराणिक कलित धरा।
कालांतर लखनऊ कही गई,
प्राचीनकाल की स्वयं स्वरा।
मुझमें ही विह्नसन वाशिष्ठी,
मैं स्वयं हूँ संस्कृति स्नेहिल।
मैं उत्तर दिशि की प्रसारिता,
इतिहास स्वयं मैं हूँ सोहिल।
मैं सदा समर्पण की भूमि,
मुझमें मेरा अस्तित्व लिखा।
उन्नति का मैं प्राचीन रूप,
मैं कला, शिल्प की महाशिखा।
मुझमें अवधी, उर्दू असीम,
मुझमें तहज़ीब, नफ़ासत है।
मुझमें अगणित हैं परम्परा,
मुझमें ही नवाब सियासत है।
मैं स्वयं ही रूमी दरवाज़ा,
मैं रेजीडेंसी की शाम स्वयं।
मुझमें ही जनेश्वर मिश्र पार्क,
मैं मलिहाबादी आम स्वयं।
साहित्य, कला, संस्कृति संगम,
मैं वाजिद अली शाह उद्यान।
मैं स्वयं में हूँ उद्यान शहर,
मैं भूल भुलैया की हूँ शान।
मैं केंद्र आंचलिक हूँ विज्ञान,
मुझमें ही लोहिया पार्क बसा।
मुझमें ही तट गोमती स्वयं,
मुझमें परिवर्तन चौक बसा।
मुझमें अंबेडकर पार्क स्वयं,
मुझमें ही हज़रतगंज शाम।
मुझमें लखनऊ विश्वविद्यालय,
मुझमें ही अगणित स्वयं धाम।
मुझमें ही हनुमत धाम स्वयं,
मुझमें ही हनुमत अलीगंज।
मुझमें ही सिकंदर बाग बसा,
मुझमें गुरुद्वारा अहियागंज।
हनुमान सेतु, मनकामेश्वर,
मैं सर्व धर्म त्यौहार स्वयं।
मैं हिन्दू-मुस्लिम प्रेम लिए,
मैं वर्षा ऋतु फुहार स्वयं।
मुझमें चंद्रिका भवानी माँ,
मुझमें अगणित हैं तरण-ताल।
मुझमें है इकाना क्रीड़ाक्षेत्र,
मुझमें हैं संग्रहालय विशाल।
मैं स्वतंत्रता की मुख्य केन्द्र,
मैं काकोरी का काण्ड स्वयं।
मुझमें है विधान सभा बसती,
मुझमें विद्वान प्रकाण्ड स्वयं।
मैं शिक्षा-दीक्षा मुख्य केन्द्र,
मैं भातखंडे संगीत स्वयं।
है अदब मेरे तन-मन प्रह्वित,
नौशाद का हूँ संगीत स्वयं।
मुझमें यशपाल का है चिंतन,
मुझमें अगणित साहित्य बसा।
मुझमें होली और ईद बसी,
मुझमें गीतों पर नृत्य बसा।
मुझमें है चिकन कलमकारी,
मुझमें ही बसता स्वाद स्वयं।
मुझमें प्रकाश की है कुल्फी,
मुझमें ही चाट, सलाद स्वयं।
मैं ही कबाब टुंडे का हूँ,
मुझमें वह पान गिलौरी है।
मुझमें ही मक्खन चौक बसा,
मुझमें मधुमिश्रित रेवड़ी है।
मुझमें है अमौसी एयरपोर्ट,
मुझमें ही गोमती फ्रंट रिवर।
मुझमें है मेट्रो की पुकार,
मुझमें न्यायालय बसा प्रवर।
मैं वीर-वीरांगनों की धरती,
मैं ही उज्ज्वल उत्तर भविष्य।
मैं बनी नवाबों की नगरी,
मैं परम्परा गुरु और शिष्य।
मैं शैली 'पहले आप' लिए,
मैं उर्दू ग़ज़ल शायरी हूँ।
मैं सफ़ी लखनवी, जावेद अख़्तर,
मैं मीर तक़ी की डायरी हूँ।
नागर की अमृत कथा हूँ मैं,
लखनवी शान मीनाई भी।
हूँ शाम-ए-अवध, अदब बसता,
हूँ अटल की काव्य कलाई भी।
सौहार्द प्रेम संगम स्थल,
मातृत्व-नेह की गगरी हूँ।
सदियों की संस्कृति मुझमें है,
मैं अवध की अनुजा नगरी हूँ।
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