रविन्द्र दुबे 'बाबु' - कोरबा (छत्तीसगढ़)
अब तो आराम करो माँ - कविता - रविंद्र दुबे 'बाबु'
बुधवार, सितंबर 27, 2023
गीत गाती लोरी सुनाती, साहित्यिक थाप से मुझे सुलाती,
अवधी, गोंड, गाँव-डगर, खान-पान व्रत उपवास सिखाती,
खेतों पर अन्न का दाना लाने, बैल चला, जल भरकर लाती।
बिटिया दुलारी, तोरी बगिया की, परदेशी का हाथ धरो,
अब तो आराम करो, माँ!
गाँवों में बजते ढोल मंजीरा, जागरण कीर्तन मनमोहक सा,
भाषा प्रांत मतभेद मिटा, जन परिवार बने है कुंदन सा,
सुर-संगीत, कथा-कहानी, बोल बने गान सगुण सा।
पोखर, झरने, जंगल-उपवन, सावन से शृंगार करो,
अब तो आराम करो, माँ!
धर्म की रक्षा, कला समाए, काव्य सजाए शिष्टाचारी,
दलदल बनते देखे तुमने, काल बदल रहे अत्याचारी,
ना थकती-हँसती, इतिहास बनाती, तुम सुकुमारी।
आधुनिक चोला भेदभाव का, तुम इसका संघार करो,
अब तो आराम करो, माँ!
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