सिद्धार्थ गोरखपुरी - गोरखपुर (उत्तर प्रदेश)
जीवन - कविता - सिद्धार्थ गोरखपुरी
शुक्रवार, सितंबर 08, 2023
तन में है अगन जीने की,
इच्छा का तिल-तिल मरना।
सत्य-पोश लोगों का,
यूँ पल-पल रोज़ बदलना।
कहा-सुना सब त्यागे?
और ख़ुद से कहना सीखें।
जीवन की हर नदियों की,
जलधार में बहना सीखें।
अब ज़रूरतें पुष्प बनी हैं,
और मैं भौंरा सम धावक।
ख़्वाब सुलगते अक्सर,
भला कौन लगाया पावक?
ख़्वाबों की गठरी बाँधे,
और किसी नदी में फेकें।
बह गया या डूब गया है,
पीछे मुड़कर ना देखें।
जीवन के जंजालों का,
कहीं विसर्जन कर दें।
जीवन के हर पहलू को,
भोले को अर्पण कर दें।
उनकी इच्छा पर चलना,
उनकी इच्छा पर रुकना।
उनकी इच्छा छाती चौड़ी,
उनकी इच्छा पर झुकना।
बस उनकी छाया में ही,
यह जीवन कट जाए बस।
जब भी संकट की घड़ी हो,
वे आ जाए यूँ ही बरबस।
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