आतुर हृदय - कविता - प्रवीन 'पथिक'
शुक्रवार, जनवरी 05, 2024
फिर एक कसक उठी है;
हृदय के किसी कोने से।
कब आओगे मुझसे मिलने?
आलिंगन में भरने को।
शांत पड़ गया था अंधड़,
डूब गया ख़ामोशी के साए में।
पुनः आस जगी, किरण लिए,
ऑंचल की छाँव में।
तेरी स्मृति शेष रोमांच से,
भर देती पूरी काया को।
लगता ऐसे, जैसे मिली हो,
कई सदियों पूर्व ही।
तुम्हें पता है? कई रातों से
सोया नहीं तेरी याद में।
मिलनें की प्रबल इच्छा,
तेरी स्मृति चुरा लेती है।
असह्य हो रहा यूॅं जीना,
टूटते तारों को गिनना।
कैलेंडर के पन्ने बदलना,
और दिल को समझाना।
बादलों में तेरी छवि भी,
धूमिल सी होने लगी है।
हवाएँ भी सीने से नही,
क्षितिज से बात करती हैं।
नदियों के कलकल की ध्वनि,
मंद पड़ती जा रही अब।
फूलों में भी पहले वाली,
वह सौंदर्यता नहीं रही।
अब तो आ जाओ मिलने,
यूॅं कब तक मुझे तड़पाओगे?
क्या तुम्हें याद नहीं आती मेरी,
या यूॅं ही ताउम्र रुलाओगे।
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