आशंका - कविता - प्रवीन 'पथिक'
रविवार, मार्च 03, 2024
एक घना अँधेरा!
मेरी तरफ़ आता है मुँह बाए,
और ढक देता सम्पूर्ण जीवन को;
अपनी कालिमा से।
किसी सुरंगमय कंदराओं में से,
सिसकने की आवाज़ आती है;
एक नवनिर्मित संन्यासी की।
कहीं दूर,
क्षितिज के पार
कोई पुकारता है मुझे,
आर्त स्वर में।
लिखी; जिसमें करुणा की आत्मकथा हो।
ये तमाम बिंब,
एकाएक,
उभरते हैं ऑंखों में।
जो प्रश्न पूछते हैं,
अपने अस्तित्व का।
या एक कहानी रचते हैं,
जो पीढ़ी दर पीढ़ी
प्रकाशित होती रहे,
टूटे हृदय के किसी कोने में।
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