अभिशप्त इच्छाएँ - कविता - प्रवीन 'पथिक'
बुधवार, मार्च 27, 2024
सब कुछ बिखर जाने के बाद;
पथ-परिवर्तन के बाद;
और स्मृतियों का गला घोंटने के बाद भी
लगता है,
कोई ऐसी बिंदु, कोई अवशेष, कोई रिक्तता
छूट रही हो हमसे।
जो रहा, तो
पुनर्सृजन कर सकता है,
वही मायावी संसार।
जिसका विश्राम स्थल सिर्फ़ मृत्यु होगा।
एक भैरवी अपना लट खोले
बलखाती, मोहक अदाओं के साथ,
बढ़ रही है;
किसी निरीह की झोपड़ी की ओर।
जो कामाग्नि से,
शांत करेगी अपनी वासना, और
छीन लेगी उसके प्राण।
अभिशप्त इच्छाएँ!
आज भी कुरेदती हैं,
उस चित्र पर लगे मिट्टी को।
जो रचता हो ऐसा संसार,
जहाॅं सुख, आनंद और
स्वप्निल सुखद कल्पनाएँ हों।
वह एहसास,
हृदय को रोमांचित करने वाला था।
वहाॅं दुनिया प्रायः लुप्त थी।
ओहदें बढ़ने से,
मनुष्यता प्रायः घटने लगती है।
दृष्टि, नए दृष्टिकोण में
परिवर्तित हो जाती है।
सामाजिकता, पुनः सृजित होती है
नए कलेवर में।
ताकि,
एक दूसरी दुनिया रच सके!
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