इंद्र प्रसाद - लखनऊ (उत्तर प्रदेश)
मैं जगत का दास हूँ - कविता - इन्द्र प्रसाद
सोमवार, मार्च 04, 2024
जग मुझे कुछ भी कहे, पर मैं जगत का दास हूँ।
दोष तारों सा लिए जो, मैं वही आकाश हूँ॥
मन उसी में रम रहा जो वास्तव में है नहीं,
उस तरफ़ जाता नहीं जो वास्तव में है सही।
मन भले अमरत्व माने, नाश के मैं पास हूँ॥
धर्म की अवधारणाएँ, पुस्तकों तक रह गई,
ढेर सारी नीतियाँ भी, ज़िंदगी से कह गईं।
नीतियाँ मिथ्या लगे, न कर रहा विश्वास हूँ॥
काल का ये चक्र जिसमें घूमती है ज़िंदगी,
अंश जिसका हूँ नहीं करता उसी की बंदगी।
आम ये जीवन मेरा कैसे कहूँ मैं ख़ास हूँ॥
कर्म सारे स्वार्थरत जिनका न कोई अर्थ है,
मोह-माया से ग्रसित ये ज़िंदगी भी व्यर्थ है।
लोभ, ईर्ष्या भाव जिसमें हों वही आवास हूँ॥
हे प्रभो! जाने कृपा कब आपकी हो पाएगी,
ज़िंदगी मेरी नहीं जब आपकी हो जाएगी।
आपके आशीष बिन मैं ख़ुद बना उपहास हूँ॥
साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos
साहित्य रचना कोष में पढ़िएँ
विशेष रचनाएँ
सुप्रसिद्ध कवियों की देशभक्ति कविताएँ
अटल बिहारी वाजपेयी की देशभक्ति कविताएँ
फ़िराक़ गोरखपुरी के 30 मशहूर शेर
दुष्यंत कुमार की 10 चुनिंदा ग़ज़लें
कैफ़ी आज़मी के 10 बेहतरीन शेर
कबीर दास के 15 लोकप्रिय दोहे
भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है? - भारतेंदु हरिश्चंद्र
पंच परमेश्वर - कहानी - प्रेमचंद
मिर्ज़ा ग़ालिब के 30 मशहूर शेर